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Wednesday, May 31, 2017

कौनहारा घाट, हाजीपुर, वैशाली, बिहार

भागवत पुराण में वर्णित गज-ग्राह के युद्ध में स्वयं भगवान विष्णु ने यहाँ आकर अपने भक्त गजराज को जीवनदान और शापग्रस्त ग्राह को मुक्ति दी थी। गंगा और गंडक के पवित्र संगम पर बसे कौनहारा घाट की महिमा हिंदू धर्म में अन्यतम है। गज की प्रार्थना सुनकर ग्राह को अपने सुदर्शन चक्र से काट दिया था। गज-ग्राह के लड़ाई में कौन जीता, कौन हारा? तभी से इस घाट को कौनहारा घाट कहने लगे...


फोटोग्राफी व लेखन : संजय कुमार

रामचौरा स्थान (हाजीपुर, वैशाली)


रामचौरा स्थान (हाजीपुर, वैशाली): जहाँ भगवान रामचंद्र जी जनकपुर (नेपाल) से वापस लौटते वक्त ठहरे थे ऐसी मान्यता है। भगवान रामजी के चरण चिन्ह के दर्शन कर अपने को कृतार्थ करें...
आपलोग देख सकते हैं, पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग व पर्यटन विभाग के अनदेखी के कारण इस पवित्र स्थल की क्या दुर्दशा है। मेरी गुजारिश है, बिहार सरकार से कृप्या बिहार पर्यटन को बढ़ावा दें और बिहार के ऐतिहासिक स्थल एवं प्राचीन धरोहर को सुरक्षित रखने में अपना कदम बढ़ाएँ...

छठ पूजा के पारना के दिन मैं और सतीश इस पवित्र स्थल का मुआयना किया...
फोटोग्राफी व लेखन : संजय कुमार

Sunday, January 22, 2017

ऐहसान, कुछ पल की दोस्‍ती व अविस्मरणीय यादें

विमुद्रीकरण की वजह से नगद रूपयों को लेकर आमजन को बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा। खासकर उन ग्रामिण क्षेत्रों में जहाँ बिल्‍कुल ही नहीं कोई पेटीएम चलता है और नहीं ऑनलाइन बैंकिंग जैसी कोई सेवा है। इन परिस्थितियों में रोजमर्रा की जिन्‍दगी कठिनाइयों को झेलते हुए गुजरती है, तथापि कुछ भले लोग मिल जाते हैं जो इन परिस्थितियों में भी भलाई करने में हिचकिचाते नहीं। मैं बात कर रहा हूँ— मैकलौड़गंज से लौटते वक्‍त हमारी किराये की गाड़ी (स्‍कॉरपियो) नहरैन पोखर, जिला - काँगरा, हिमाचल प्रदेश में खराब हो गयी थी; दिन के करीब ढाई बजे थे, नजदीक के दुकान से पता करने पर स्‍थानीय मिस्‍त्री का फोन नम्‍बर मिला। फोन करने के करीब १ घण्‍टे बाद मिस्‍त्री आया। मिस्‍त्री गाड़ी को देखने के बाद बताया, गाड़ी को पीछे वापस उसके रिपेरिंग शॉप पर ले जाना पड़ेगा, जहाँ से हमलोग १० मिनट पहले ही गुजरे थे। दिन के करीब साढ़े तीन बज चुके थे, मिस्‍त्री ने गाड़ी को खोलना शुरू किया। उस्‍ताद जी पहले से ही एक गाड़ी बनाने में लगे हुए थे, कभी उस गाड़ी को देखते, तो कभी हमारी गाड़ी यानि दोनों गाड़ी को बारी-बारी से देखते हुए, उन्‍होंने शाम के करीब सवा सात बजे बताया कि गाड़ी में बहुत बड़ी खराबी हो गयी है; इसके पार्ट्स नजदीक के किसी भी दुकान में नहीं मिलने वाले हैं; इसके लिए हमलोगों को रात भर रूकना पड़ेगा, सुबह होने के बाद ही कोई उपाय किया जाएगा। दिसम्‍बर का महिना ठण्ड कुछ खास नहीं थी, लेकिन ठण्डी हवाएँ चलने के कारण सर्दी महसूस हो रही थी। हमलोग कैसे भी करके उसी दिन वापस आना चाहते थे। अगर समय से मिस्‍त्री गाड़ी खोलकर हमें बता देता तो हमलोग वहाँ से करीब ६० किलोमीटर दूर जाकर बाजार से पार्ट्स ले आते, लेकिन लाख मिन्‍नतें करने के बाद भी मिस्‍त्री ने नहीं माना। मिस्‍त्री भी दिनभर का थका-हारा घर जाने को बेचैन हो रहे थे। हम सबने तय किया कि कुल सात लड़कों में से चार या पाँच लड़के दिल्‍ली के लिए बस से रवाना हो जाते हैं। फिर, सागर ने मना कर दिया, कहने का भाव था; मैं इन परिस्थितियों में छोड़कर नहीं जाऊँगा, सागर के मना करते ही सबने मना कर दिया कि हम भी दिल्‍ली नहीं जा रहे हैं। दफ्तर में मुझे अति आवश्‍यक काम के लिए कल पहुँचना बहुत जरूरी था। मैं इसी ऊहापोह में था कि दफ्तर के प्रबन्‍धक को कल पहुँचने का इकरार भी कर चुका हूँ और इनलोगों को छोड़कर चला जाता हूँ तो ये लोग क्‍या कहेंगे कि मुसीबत में साथ छोड़कर चला गया, लेकिन मैंने इस बात से मन को मना लिया कि मात्र मेरे छोड़कर बाकी सारे लड़के यहाँ तो है हीं और ऐसे भी कोई बहुत बड़ी मुसीबत नहीं है; कल सुबह गाड़ी बनवाकर आ ही जाएँगे। फिर, अंकुर से विचार-विमर्श करके मैंने तय किया कि बस से दिल्‍ली के लिए रवाना हो जाता हूँ। मेरे बटुए में मात्र २१० रूपये ही थे, और यहाँ से दिल्‍ली तक का बस किराया करीब ४५० सौ रूपये थे। मैंने अंकुर से २५० सौ रूपये मांगे, लेकिन उसने मना कर दिया। मैं मजबूरी को समझ रहा था, क्‍योंकि गाड़ी को ठीक करने के लिए तथा पार्ट्स खरीदने के लिए मोटी रकम यानि १० से १२ हजार रूपये की जरूरत थी। अंकुर ने तकरीबन २ हजार रूपये नगद पास के ही पेट्रोल पम्‍प से डेबिट कार्ड से भुगतान करके ले लिया था। सबने अपने-अपने नगद रूपये जमा किये तो करीब ७ हजार रूपये ही इकट्ठा हो पाये थे। अंकुर ने सुझाव दिया कि यहाँ से चण्डीगढ़ (पंजाब) तक के लिए टिकट ले लीजिएगा और वहाँ से बस स्‍टैण्‍ड में उतरने के बाद एटीएम से पैसे निकालकर, फिर दूसरी बस पकड़ के दिल्‍ली चले जाइएगा। लेकिन विमुद्रीकरण को लेकर एटीएम की हालत तो... मैं मन-ही-मन यह भी सोंच रहा था कि अगर एटीएम से वहाँ पैसे न निकले, तब क्‍या होगा? मैंने हिम्‍मत जुटाकर वहाँ से निकल पड़ा, सोंचा जो भी होगा देखा जाएगा... मैंने सबसे हाथ मिलाया और बुरा न मानने के लिए कहते हुए अंकुर से नहरैन पोखर के चौराहे तक साथ चलने के लिए कहा— अंकुर ने मना कर दिया।

Thursday, October 27, 2016

लैंसडाउन की सैरः साहसिक व रोमांचकारी यात्रा


गाँधी चौक, लैंसडाउन
भुल्ला ताल का एक दृश्य
भुल्ला ताल का एक दृश्य
मौज-मस्‍ती करना, घूमना-फिरना किसे अच्‍छा नहीं लगता। अपनी तनाव व व्‍यस्‍त जिंदगी से हर कोई उब जाता है, तो सोंचता है कहीं घूम के आते हैं, मन हल्‍का हो जाएगा। हर कोई बड़ा ही उत्‍साहित होता है, जब किसी यात्रा पर जाने की बात चल रही हो। अंकुर मेरे दफ्तर का बहुत ही हाजिरजवाब लड़का है। लैंसडाउनजिला - पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखण्ड बाइक से घूमने जाने की योजना बना रहा था। मैं अपने दफ्तर में अंकुर के पीछे बैठता हूँ, इसलिए सारी बातें सुन रहा था, फिर बीच में ही टोककर मैंने भी लैंसडाउन जाने के लिए हामी भर दी। दो सप्ताह पहले ही जाने की योजना बना लिया था। अगले सप्ताह में शुक्रवार को जाना तय हो गया। फिर वो शुक्रवार 21 अक्टूबर 2016 आ ही गया, जिस दिन का हमें बेसब्री से इन्‍तजार था। हमने आपस में बात किया तो पता चला हम चार लड़के जाने के लिए तैयार हैं। शुक्रवार के दिन हमलोग पूरे तैयारी के साथ घर से सामान वगैरह लेकर के दफ्तर पहुँचे; इस दिन पता चला हमारे साथ एक लड़का हिमांक भी जाने के लिए राजी हो गया है। शाम को जाने से पहले हिमांक और अंकुर में आपसी बहस चल रही थी कि हमलोग लैंसडाउन चलें या कसौली। पाँच लड़कों में से हिमांक लैंसडाउन जाने को कह रहा था चुकि लैंसडाउन, कसौली (हिमाचल प्रदेश) से किलोमीटर के हिसाब से थोड़ा कम दूर था और रात में ही जाने की योजना बनी हुई थी, इसलिए लैंसडाउन ही जाने का तय हुआ। पेट्रोल पम्प पर हमने बाइक की टंकी पूरा भरवा लिया ताकि रास्ते में कोई पेट्रोल न लेना पड़े। अंकुर फिर भी नहीं मान रहा था वह कसौली जाने की जिद पर अड़ा हुआ था। फिर, मैंने भी लैंसडाउन जाने के लिए ही जोर दिया; अंततः हमलोग पेट्रोल पम्प से लैंसडाउन की ओर चल पड़े। गाजियाबाद में रूककर हमलोगों ने पराठे खाये, करीब पौने आठ बजे रहे थे, अंकुर घर से ही सबके लिए पराठे बनवाकर लाया हुआ था; फिर पानी पीया और राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 58 पर चल पड़े। मेरठ होते हुए हमलोग 90-110 के गति से बाइक चलाते हुए जा रहे थे। खतौली बाइपास के नजदीक ही एक चाय के दुकान पर हमलोगों ने चाय पीने के लिए गाड़ी रोके। सभी ने वहाँ चाय पीया और बचे हुए पराठे खाये। वहाँ से खतौली होते हुए कोटद्वार की ओर जाना था, लेकिन हमलोग डर रहे थे कि उस रास्ते में रात में लूट-पाट होती है; फिर चाय वाले ने भी कहा खतौली का रास्ता सुरक्षा के दृष्टिकोण से ठीक नहीं है। यह सोंचकर सबने कहा जान है तो जहान है। हमलोग सीधा मुजफ्फरनगर के रास्ते होते हुए जाने का तय किया जो खतौली के रास्ते से इस रास्ते में 40 किलोमीटर ज्यादा गाड़ी चलाना था। गाड़ी 40 किलोमीटर ज्यादा चले तो कोई बात नहीं, लेकिन सुरक्षित पहुँचना ज्यादा जरूरी था, हम सबने आपस में बातचीत की। मुजफ्फरनगर तक तो हमलोग राष्ट्रीय राजमार्ग पर चले रहे थे, सड़कों के मध्‍यस्‍थ खम्भों की बत्ती जल रही थी, इसलिए कोई डर नहीं था। अब यहाँ से शुरू हुई जानसठ जाने के रास्ते जो रात में बहुत ही भयानक और सुनसान था। चारों तरफ सन्नाटे छाये हुए थे, सड़क के दोनों ओर खेतों में ईंखों के झुरमुट, घना अंधेरा, रात के करीब दस बजे थे, आसमान में आधा चाँद उगने ही वाले थे जो थोड़ा अंधेरा दूर कर रहा था। हमलोग तीन बाइकों पर पाँच लड़कें ऐसे गाड़ी भगा रहे थे जैसे पीछे से कोई चूड़ैल पीछा कर रही हो। मैं मन-ही-मन यह भी सोंच रहा था कि पागल कुत्ते ने हमलोगों को काट रखा है, जो इतनी रात को इस सुनसान, विरान रास्ते पर कहीं जाने की सोंच रहे हैं। लेकिन, यह देखकर थोड़ा डर कम हो गया कि हमारे साथ-साथ कुछ ट्रक और टैक्सी आगे या पीछे चल रहे थे।
आज के आधुनिक युग में गुगल नक्शा बड़ा ही काम का हो गया है जो कहीं जाना हो तो रात के घने अंधेरे में भी साथ नहीं छोड़ता। नहीं तो, एक जमाना था कि रात के सफ़र में रास्ते पूछने के लिए स्थानीय लोगों को ढूंढना पड़ता था। मेरा बाइक सागर चला रहा था क्योंकि मैं करीब 80 किलोमीटर बाइक चला चुका था, इसलिए थक गया था। मैं हिमांक के बाइक पर पीछे बैठा हुआ था। मेरे हाथ में अपना मोबाइल था जिसपर गुगल नक्शे के सहारे रास्ते को ढूंढते हुए जा रहे थे। हमलोग उस विरान सड़कों से होते हुए जानसठ पहुँचे। जानसठ से मिरानपुर की ओर रास्ते ठीक थे मतलब दोनों तरफ गाँव/घर दीख रहे थे, मिरानपुर पहुँचे। यहाँ एक ढाबे पर हमलोगों ने चाय पीया थोड़ी बातचीत की और फिर जैसे ही चलने को तैयार हुए तो मुझे शौच जाने जैसा महसूस हुआ। मैंने सोंचा ढाबा है तो यहाँ शौचालय होगा, पूछने पर पता चला शौचालय है। फिर दो मिनट में ही शौच करके हमलोग चल पड़े बिजनौर की ओर। बिजनौर से नजीबाबाद के रास्ते भी सुनसान थे, कहीं-कहीं रास्ते में खड्ढे भी थे, जो कि बाइक के लिए बड़े ही खतरनाक थे। दो बार मेरी बाइक सड़क के खड्ढे में पड़ा, फिर कैसे-कैसे करके हमने सम्भाला। हिमांक और अंकुर की अभेन्जर, बजाज की 220 सीसी की बाइक थी, इसलिए वो दोनों तो बड़े मस्ती से 110 के गति में जा रहे थे। वो दोनों करीब 1 किलोमीटर आगे, मैं पीछे-पीछे चल रहा था, क्योंकि मेरी बाइक 110 सीसी की हीरो पैशन एक्सप्रो थी; फिर भी मैं 95 की गति से बाइक हाँक रहा था। सड़क के दोनों ओर लगे आम के वृक्ष सड़कों पर ऐसे झुक रहे थे, जैसे रात के अंधेरे में देखने पर प्रतीत हो रहा था हमलोग किसी सुरंग में जा रहे हों। दोनों आगे जाकर रूक जाते, फिर हमलोग एकसाथ इकट्ठा हो जाते। फिर वही सिलसिला चलता रहा और हमलोग नजीबाबाद पहुँचे। नजीबाबाद से कोटद्वार तक हमलोगों ने पूरी गति में बाइक चलाये, यह रास्ते भी बहुत ही सुनसान थे। मैं पीछे-पीछे बाइक चला रहा था इसलिए डर भी लग रहा था कि कहीं कोई बीच में रोक लिया तो हमारे साथ कोई अनहोनी हो जाएगा। वो दोनों आगे-आगे चले जाएँगे और जब तक पीछे आएँगे तब तक तो हम लूट चुके होंगे, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ; कहते हैं जाको राखै साईयाँ, मार सके न कोय बाइक से किसी लम्बे सफर पर, वह भी रात में जाना बड़ा साहसिक कार्य था। अपने आप में एक रोमांच पैदा कर रहा था, एक अनुठे पल का ऐहसास करा रहा था, इस तरह सूनसान रास्ते पर रात के अधखीले चाँद की चाँदनी में नहाते हुए जा रहे थे। करीब रात के दो से ढाई बजे होंगे, अंकुर अपनी पूरी गति में आगे-आगे जा रहा था मैं बीच में था और हिमांक अपने बाइक से पीछे था, वह पीछे से सीटी बजा रहा था यह इशारा करने के लिए कि हमलोग रूक जायें क्योंकि हमलोग गलत रास्ते पर जा रहे थे। लेकिन हिमांक का इशारा हमलोग नहीं समझ पाये और बाइक तेज गति से भगाए जा रहा था मानो तुफान से मुकाबला कर रहे हों। फिर हिमांक अपने बाइक की गति तेज करके अंकुर और मेरे पास आकर के बोला गुगल नक्शे के अनुसार हमलोग गलत रास्ते पर जा रहे हैं। फिर दो किलोमीटर पीछे आकर, फिर आगे की ओर मुड़े, रास्ते नहीं मिल रहे थे, फिर पीछे हुए इस तरह दो चक्कर लगाये तो पता चला कि यहीं से एक मोड़ है, जिससे चलकर हमलोग कोटद्वार पहुँचेंगे। इस तरह सूनसान रास्ते को झेलते हुए कोटद्वार के चौराहे पर हमलोग पहुँचे। रात के करीब तीन बजे होंगे, चौराहे से थोड़ा दस कदम आगे निकले ही थे कि चौराहे पर दो-चार स्थानीय लोग आपस में बातें कर रहे थे, उन्होंने टोका और पूछा लैंसडाउन? तो हमलोगों ने हाँ कहा, फिर उन्होंने बताया कि आप गलत जा रहे हैं यहाँ से दायें की ओर जाएँ। 
अब यहाँ से शुरू होता है छोटे-छोटे पहाड़ी घुमावदार रास्ते, कभी दायें, कभी बायें, फिर दायें, फिर बायें, कभी ऊपर की ओर तो कभी नीचे ढलान रास्ते, इस तरह हमलोग पहाड़ी मैदानों में रात में मानो कबड्डी खेलते हुए जा रहे थे। मेरे हमसफर दोस्त दोनों आगे चल रहे थे कभी मैं उनको पीछे कर देता फिर वो आगे हो जाते। इस तरह पूरे रास्ते करीब मैं ही पीछे रहा, मानो लुकाछीपी का खेल हो रहा हो क्योंकि टेढ़े-मेढ़े रास्ते थे तो कभी दीख जाते कभी छुप जाते। मैं पीछे था इस कारण डर भी लगता, तो उस समय हनुमान जी को याद करके मन-ही-मन हनुमान चालिसा पढ़ना शुरू कर देता। फिर हमलोग दुगड्डा पेट्रोल पम्प पर पहुँचे जो उन पहाड़ी क्षेत्र में एक मात्र पेट्रोल पम्प था। वहाँ पर हमलोगों ने लघुशंका करने के बाद थोड़ा विश्राम किया। ठंडी हवाएँ तेज चल रही थी, इसलिए ठंड से हमलोग काँप रहे थे। हमलोगों ने जैकेट पहन रखे थे, फिर भी ठंड लग रही थी। अल्पविश्राम के बाद फिर हमलोग आगे की ओर चल पड़े। ऊँचे-नीचे रास्ते, मुझे उस गाने की याद दिला रहे थे, जो फिल्मः खुद्दार (1982), में अभिनेता संजीव कुमार अपने दोनों छोटे भाईयों को विद्यालय ले जाते वक्त गाते हैं। ऊँचे-नीचे रास्ते और मंजिल तेरी दूर, बीच में राही रूक न जाना होकर के मजबूर...” ये गाने थोड़े हौंसला बढ़ा रहे थे। अब हम पहुँचे वहाँ, जहाँ से दो रास्ते निकल रहे थे, एक लैंसडाउन की तरफ और दूसरी वहीं से भगवान तारकेश्वर मंदिर जो कि ताड़ और देवदार वृक्षों के खूबसूरत वादियों के बीच अवस्थित हैं। हमें लैंसडाउन जाना था, यहाँ पर एक छोटा वाद-विवाद हुआ कि यह रास्ता लैंसडाउन जाता है, तो वह रास्ता लैंसडाउन जाता है। लेकिन वहाँ पर सूचनापट्ट लगे हुए थे जो लैंसडाउन के रास्ते बता रहे थे, फिर हमलोगों ने उसी के अनुसार चले पड़े। लैंसडाउन करीब यहाँ से चार किलोमीटर रह गये थे, कि इसी बीच मेरी बाइक भी जवाब देना शुरू कर दिया था, बेचारे को रातभर हाँक-हाँक करके परेशान जो कर रखा था। ऊँची चढ़ाई वाले रास्तों पर चढ़ने से बाइक बंद होने जैसा लग रहा था, लेकिन फिर भी हमने नहीं माना और आखिरकार हमलोग रात में ढनमनाते हुए लैंसडाउन के गाँधी चौक पर पहुँच गये। रात के करीब पौने चार बज चुके थे।
अंकुर ने जाने से पहले ही दिल्ली से ही लैंसडाउन के एक हिन्दू धर्मशाला के प्रबंधक से बात कर लिया था कि हमलोग रात के करीब 12 से 1 बजे तक आ जाएँगे। प्रबंधक ने कहा था पहुँचने के बाद द्वार पर दाई को बोल देना धर्मशाला खोल देंगी। अब, हमलोग ईश्वर के कृपा से सही-सलामत पहुँच तो गये थे, रह गयी थी ठहरने का कोई ठिकाना ढूंढना, तो हममें से अंकुर और मयंक दोनों मिलके ठिकाना ढूंढने निकले। इस बीच मैंने अपने मोबाइल से इंटरनेट चालु करके हिन्दू धर्मशाला ढूंढने का प्रयास किया, लेकिन आइडिया का नेट बिल्कुल ही धीरे चल रहा था, इस कारण मैं धर्मशाला नहीं ढूंढ पाया। जहाँ रूके थे वहीं पर एक मयूर होटल था उससे पूछने पर ठहरने का शुल्क ज्यादा बता रहा था इस वजह से हमलोग उसी हिन्दू धर्मशाला को ढूंढने निकले। ठंड भी काफी लग रही थी तो मैंने अपना दूसरा अधकटी बाजू वाला जैकेट भी बैग से निकाल कर पहन लिया। करीब आधा घंटा लगाने के बाद अंकुर और मयंक खाली हाथ वापस लौटा, यह कहने कि कोई ठहरने की व्यवस्था नहीं हुई। फिर, हिमांक और अंकुर फिर से हिन्दू धर्मशाला ढूंढने निकले और करीब पौने एक घंटे के बाद आये। हमलोग चल पड़े, कुछ ही दूर पर एक चाय-नास्ते की दुकान खुली हुई थी, चुकि करीब पौने पाँच बज चुके थे, भोर हो गयी थी इसलिए हमलोगों ने दुकान में बैठकर पावरोटी, नमकीन और चाय का नास्ता किया; पैसे चुकता करने के बाद हमलोग धर्मशाला की ओर चल पड़े। धर्मशाला के द्वार एक बुजूर्ग महिला ने दरवाजा खोली; फिर हमलोगों ने अपनी-अपनी बाईक धर्मशाला के परिसर में खड़ा कर दिया। उस महिला से ठहरने के सिलसिले में कुछ आपसी बातचीत हुई, फिर हमलोग ऊपर के कमरे में चले आये; जो चार से पाँच घंटों के लिए लिया था। सुबह के साढ़े पाँच बज चुके थे, हमलोग अपने-अपने बिस्तर पर लेट गये। सभी को तो नींद आ गयी लेकिन रातभर जागने और बाईक चलाने के बावजूद भी मुझे नींद नहीं आयी। फिर मैंने सोंचा झूठमूठ के सोने से कोई फायदा नहीं है, फिर मैं शौच करने चला गया। मुँह-हाथ धोने के बाद मैं छत पर टहलने निकला, कुछ सुबह के वहाँ के खूबसूरत पहाड़ियों का तस्वीर लिया। नीचे आया तो देखा हिमांक भी जगा हुआ था, पूछा तो बताया मुझे भी नींद नहीं आ रही है। अब, दोनों मिलकर टहलने निकले, थोड़ा ऊपर की ओर पहाड़ी पर चढ़ने पर कुछ बच्चें जो सुबह विद्यालय जाने के लिए तैयार थे, उनसे पूछा- छोटू, यहाँ कोई सार्वजनिक शौचालय है क्या? तो उसने बताया हाँ थोड़ा-सा और ऊपर जाने पर एक है। हिमांक शौच के बाद बाहर निकला, फिर हमदोनों बातचीत करते हुए अपने कमरे की ओर चल पड़े। रास्ते में नास्ते की दुकान पर गर्मागर्म जलेबी बनी हुई थी, खाने का मन हुआ लेकिन दातुन-मंजन हमदोनों ने नहीं कर रखा था, इसलिए कमरे पर चले आये। कमरे पर आने के बाद सोने का प्रयास किया लेकिन नींद नहीं आयी। अंकुर, मयंक और सागर बड़े निश्चिंत होकर गहरे नींद में सो रहे थे, जैसे कहते हैं- “घोड़ा बेचकर सो जाना
मैं फिर से अकेले टहलने निकल पड़ा करीब एक से डेढ़ घंटे लैंसडाउन के गाँधी चौक पर कभी टहलकर, तो कभी पत्थर के बने बेंच पर बैठकर बिताया। वहाँ का जनजीवन कैसे चलता है इसी को देख रहा था। मैं जिस बेंच पर बैठा था उसी के बगल में एक लड़का ताजा सब्‍जी जैसे— पालक, सहजन, और लौकी इत्‍यादि लेकर बेचने आया हुआ था। ज्‍यादातर वहाँ का जनजीवन दुकानों से ही चलते हैं या फिर किसी को नौकरी लगी हो तो। गाँधी चौक से कोटद्वार के लिए छोटी बसें और टैक्‍सी वगैरह चलते हैं, जिससे वहाँ के लोगों का आवागमन होता है। चारों तरफ पहाड़-ही-पहाड़ थे, खेती करने का कहीं कोई खेत देखने को नहीं मिला। फिर मैं वापस कमरे पर आ गया। समय बीता और हमलोग धर्मशाला प्रबन्धक से बातचीत तय होने के अनुसार दूसरे कमरे में चले आये जो साफ-सूथरे थे; बिछावन भी ठीक-ठाक था। हमसभी नहाकर तैयार हो गये और गाँधी चौक पर आकर मयूर होटल में पराठे, अचार और चाय का नास्ता किया और चल पड़े उन आकर्षण बिन्दुओं का सैर करने जहाँ के लिए हमलोग इतने उत्साहित हो रहे थे। सबसे पहले भुल्ला ताल गये, जो एक छोटा-सा ताल है, करीब 100 मीटर लम्बाई और 30 फीट गहराई था, जिसमें पर्यटक 80 रुपये शुल्क अदा करके नौकायन करते हैं। हम पाँचों ने नौका पर सवार होकर नौकायन का खूब आनंद उठाये, अनेकों तस्वीरें खिंचवायी। चारों ओर छोटे-छोटे पहाड़ी, लम्बे और घने वृक्षों के बीच भुल्ला ताल में नौकायन करके हमसभी बहुत ही रोमांचित हो रहे थे। ताल से निकलने के बाद ताल के बाजू में ही एक पेड़ के ऊपर लोहे का मचान बना हुआ था, जिसपर हमलोगों ने चढ़कर खूब सारी तस्वीरें खिंचवाये।
अब हमलोग निकल पड़े अगले आकर्षण बिन्दू की तरफ, अब ऐसे जगह पर पहुँचे जहाँ आगे की ओर गहरी खाई थी और हमलोग ऊपर पहाड़ी पर थे, यहाँ से खाई का खूबसूरत नजारा दीख रहा था। यहाँ पर कुछ बाईक वाली तस्वीरें खिंचवाये। ऊपर पहाड़ी पर चढ़ने के बाद एक केन्द्रीय विद्यालय मिला, जिसमें सुबह सभी बच्चे पढ़ने आये थे, वहाँ से पूछने के बाद हमलोग संतोषी माता मंदिर पहुँचे। अंकुर को भगवान के प्रति श्रद्धा नहीं है इसलिए वह वहीं पर एक पत्थर पर बैठ गया और हम चारों ने संतोषी माता के दर्शन किये, मंदिर में पानी के मयूर जग रखे हुए थे, वहाँ से बोतल में पानी भरा, पानी पीया और यहाँ कुछ तस्वीरें खिंचवाये और चल पड़े टीप-इन-टॉप की तरफ। पहाड़ों पर इतने रास्ते होते हैं कि अच्छे-अच्छे लोग उस जंगल में खो जाये, हमलोग रास्ता भटक चुके थे, तो वहीं पर एक स्थानीय महिला मिलीं, जिनसे हमलोगों ने टीप-इन-टॉप का रास्ता पूछा। फिर, पहुँचे टीप-इन-टॉप। टीप-इन-टॉप से छोटे-छोटे पहाड़ों के मनोरम दृश्य दिख रहे थे। प्रकृति के गोद में पहुँचकर असीम सुख की अनुभूति हो रही थी। यहाँ भी हमलोगों ने उन पहाड़ों से रमणीय दृश्‍य के बहुत सारे फोटो खिंचवाये। स्‍वच्‍छ भारत अभियान पूरे भारत में जोर-शोर से चल रहा है, लेकिन कुछ नालायक बच्‍चों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता जो वहाँ मुझे देखने को मिला। एक लड़की को पॉलीथीन में उस टीप-इन-टॉप से नीचे खाई में कुछ फेंकते हुए देखा, उसी बीच मैंने टोका— “दोस्‍त, वहाँ कूड़ेदान रखा हुआ है आप उसमें कुड़ा फेंके”। तबतक वो कुड़ा फेंक चुके थे। एक लड़की के साथ दो लड़के थे। मुझे लगा कहीं बहस न हो जाए, लेकिन ऐसा कुछ न हुआ।
शाम के करीब चार बज चुके थे। हमसभी टीप-इन-टॉप से वापस लौटकर गाँधी चौक पहुँचे। वहाँ से पास ही में एक बाइक सर्विसिंग सेंटर था, वहाँ पहुँचकर हम सभी ने टायर में हवा भरवाये। फिर हमसभी ने तय किया कमरे पर वापस लौटने के बाद होटल में जाकर खाना खाएँगे। होटल में खाना खाने के बाद हमलोग कमरे पर वापस आ गये। शाम के छह बज चुके थे, कमरे में धीमी आवाज़ में पंजाबी गाने बजा रखा था, मुझमें और अंकुर में शेरों-शायरी का मुकाबला शुरू हो गया; मोमोज-चिकेन खाते हुए हमलोग खूब मौज-मस्ती कर रहे थे। यात्रा पर जाने का हमसभी भरपूर आनंद उठा रहे थे, रात के करीब साढ़े नौ बज गये। दिन-भर के थके-हारे मैं और सागर दूसरे कमरे में सोने के लिए चले आये। शुक्रवार रात का जगा हुआ और शनिवार दिन-भर का थका, मुझे बिस्तर पर लेटते ही गहरी नींद आ गयी।
सुबह चार बजे तक मेरी नींद पूरी हो चुकी थी, फिर भी रजाई के अंदर ही लेटा रहा। फिर, साढ़े पाँच बजे उठकर नित्य क्रिया से निवृत होकर टहलने निकला। गाँधी चौक पर आकर चाय पीया। थोड़ी देर, इधर-उधर घूमकर फिर वापस कमरे पर आ गये। आकर देखा तो पहले कमरे में सभी जनाब सो रहे थे, मैंने दरवाजा खटखटाकर उठाया। अंकुर ने दरवाजा खोला और फिर बिस्तर पर लेट गया। मैं दातुन-मंजन करने के बाद ठंडे पानी से नहाया और बाकी के बचे आकर्षण बिन्दु को देखने के लिए तैयार हो गया, तब तक अंकुर और मयंक बिस्तर पर लेटा ही रहा। करीब दो से तीन घंटे बाद सभी तैयार हुए और फिर धर्मशाला से निकल पड़े। धर्मशाला से थोड़े ही दूर पर एक कालेश्वर मंदिर है जिसमें मैं, हिमांक, सागर, और मयंक सभी दर्शन करने के लिए गये। द्वार के घंटे बजाते हुए मंदिर में प्रवेश किया शिवजी के साथ-साथ सभी देवी-देवताओं को प्रणाम किया, कुछ तस्वीरें खिंचवाये और वापस गाँधी चौक पर आ गये। मयूर होटल में नास्ते में समोसे, बन बटर और चाय पीया। फिर, होटल का बिल चुकता करने के बाद सौ साल पुरानी मिस्‍ठान के दुकान से बाल मिठाई सबने अपने-अपने जरूरत के अनुसार खरीदे। उसके बाद दरवान सिंह संग्रहालय गये, जो गाँधी चौक से पूरब और उत्तर में है। यह पूरा क्षेत्र सेना के अधीन है और गढ़वाल राइफल्स का गढ़ भी है। गढ़वाल राइफल्स युद्ध स्मारक तथा रेजिमेंट संग्रहालय है। यहाँ गढ़वाल राइफल्स से जुड़ी वस्तुओं जैसे युद्ध में उपयोग की गयी हथियार, हर प्रकार के बंदूकों की झलक देख सकते हैं। संग्रहालय शाम के 5 बजे तक ही खुला रहता है। संग्रहालय से सटा सैन्य प्रशिक्षण मैदान है, जिसे आम पर्यटक बाहर से ही सैन्य प्रशिक्षण का नजारा देख सकते हैं। वैसे, यह स्थान स्वतंत्रता आन्दोलन की कई गतिविधियों का गवाह भी रह चुका है। संग्रहालय देखने के बाद हिमांक और अंकुर वापस दिल्ली लौटने के लिए आगे आ गये। जबतक मैं अपनी बाइक सीधी कर रहा और हेलमेट पहन रहा था, तबतक दोनों अपने बाइक से थोड़ा आगे निकल गये थे। मैं जब नीचे उतरने के बाद गोल चक्कर पर पहुँचा तो यहाँ से दो रास्ते बन रहे थे जो मुझे दुविधा में डाल दिया कि किधर जाऊँ? पहाड़ों पर इतने रास्ते होते हैं कि हर कोई गच्चा खा जाए। अब मैंने सोंचा सागर को फोन करता हूँ। फिर मैंने फोन मिलाया तो उसने बताया कि मैं चौक के बाद खड़ा हूँ। फिर मैं अपने बाइक से आगे की ओर यानी वापस गाँधी चौक की ओर बढ़ गया और उसी बाइक सर्विसिंग सेंटर के पास जाकर खड़ा हो गया। फिर मैंने फोन मिलाया और बताया कि मैं बाइक सर्विसिंग सेंटर के पास खड़ा हूँ। अंकुर अपनी बाइक लेकर यहाँ आया। आपस की असमन्वय के कारण अंकुर से मेरी थोड़ी बहस भी हो गयी। अंततः हमसब इकट्ठा हुए और पहाड़ियों से नीचे की ओर उतरने लगे। पहाड़ियों के बीच-बीच में जहाँ-जहाँ दिलकश नजारें दिखे वहाँ रूककर हम सबने तस्वीरें खिंचवाये। इस तरह वापस कोटद्वार पहुँचे, वहाँ से नजीबाबाद होते हुए बिजनौर के रास्ते आगे बढ़ते गये। रास्ते में देखा कहीं-कहीं सड़क के किनारे गन्ने को कोल्हु में पेरकर गुड़ बनाये जा रहे थे। हिमांक को ताजे गुड़ लेने का मन हुआ। पहली जगह पूछा तो कोल्हु वाले ने मना कर दिया, कहा आगे कुछ कोल्हु हैं जहाँ से गुड़ मिल जाएँगे। आगे बढ़ने के बाद एक से पूछा तो उसने 45 रुपये किलो बताया जो बाजार में इतने रुपये में आसानी से मिल जाते हैं। कोल्हु से लेने पर सस्ते में न मिले तो क्या फायदा। आगे बढ़ने पर एक कोल्हु मिला जिसमें कुछ मुस्लिम और हिन्दू दोनों मजदूर गन्ने को पेरकर ताजे गुड़ बना रहे थे। वे 35 रुपये प्रति किलो गुड़ देने के लिए राजी हो गये। मैंने एक किलो, बाकी सबने दो-दो किलो गुड़ लिये, कुल मिलाकर हमने नौ किलो गुड़ खरीदे। पैसे चुकता करने के बाद हमलोग आगे बढ़े। भूख जोरों से लगी हुई थी, इसलिए एक ढाबे पर रूके और हमलोगों ने भर पेट खाने खाये। ढाबे से चलकर जानसठ के रास्ते, खतौली होते हुए मेरठ बाइपास पहुँचे। रास्ते में एक जगह फिर रूककर आराम किया और गाजियाबाद होते हुए हम सभी अपने-अपने घर को निकल पड़े। यह मेरे जीवन का पहला साहसिक और रोमांचकारी यात्रा था, जो अनोखा रहा जिसको हमलोगों ने बाइक से कुल 535 किलोमीटर सफर तय किया।
परिकल्पना व लेखनः संजय साह


भुल्ला ताल में नौकायन करते पर्यटक

भुल्ला ताल का एक दृश्य

भुल्ला ताल का एक दृश्य

श्री कालेश्वर मंदिर


रास्ते में रिसोर्ट

मयूर होटल के सामने चार दोस्त

मयूर होटल के सामने मयूर होटल के सामने बाइक पर

भुल्ला ताल परिसर

भुल्ला ताल परिसर


भुल्ला ताल के समीप लोहे के मचान पर


दोस्तों के साथ हँसी-मजाक करते हुए

भुल्ला ताल में नौकायन का आनंद उठाते हुए

रास्ते में एक घाटी का दृश्य

रास्ते में कोल्हू में ईख पेरकर गुड़ बनाते हुए